बुधवार, 28 अगस्त 2013

‘फ़िराक़’ गोरखपुरी की जन्मतिथि

फ़िराक़ गोरखपुरी


आजफ़िराक़गोरखपुरी की जन्मतिथि है।फ़िराक़उर्दू के पहले रचनाकार हैं, जिनको उनकी कृतिगुल--नग़्माके लिए  ज्ञानपीठ पुरस्कार मिला। इसी कृति के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार और सोवियत लैंड नेहरू अवार्ड से भी सम्मानित किया गया।

:पेश-ए-नजर फिराक़ के कुछ कलाम:


1. ज़िन्दगी क्या है,ये मुझसे पूछते हो दोस्तों.
एक पैमाँ१ है जो पूरा होके भी  पूरा हो.
 
बेबसी ये है कि सब कुछ कर गुजरना इश्क़ में.
सोचना दिल में ये,हमने क्या किया फिर बाद को.
 
रश्क़ जिस पर है ज़माने भर को वो भी तो इश्क़.
कोसते हैं जिसको वो भी इश्क़ ही है,हो  हो.
 
आदमियत का तक़ाज़ा था मेरा इज़हारे-इश्क़.
भूल भी होती है इक इंसान से,जाने भी दो.
 
मैं तुम्हीं में से था कर लेते हैं यादे-रफ्तगां२.
यूँ किसी को भूलते हैं दोस्तों, दोस्तों !
 
यूँ भी देते हैं निशान इस मंज़िले-दुश्वार का.
जब चला जाए  राहे-इश्क़ में तो गिर पड़ो.
 
मैकशों ने आज तो सब रंगरलियाँ देख लीं.
शैख३ कुछ इन मुँहफटों को दे-दिलाक चुप करो.
 
आदमी का आदमी होना नहीं आसाँ 'फ़िराक़'.
इल्मो-फ़न४,इख्लाक़ो-मज़हब५ जिससे चाहे पूछ लो.



2.यूँ माना ज़िन्दगी है चार दिन की 
बहुत होते हैं यारो चार दिन भी
 
ख़ुदा को पा गया वायज़ मगर है 
ज़रूरत आदमी को आदमी की 
 
बसा-औक्रात1 दिल से कह गयी है 
बहुत कुछ वो निगाहे-मुख़्तसर भी 
 
मिला हूँ मुस्कुरा कर उससे हर बार 
मगर आँखों में भी थी कुछ नमी-सी 
 
महब्बत में करें क्या हाल दिल का 
ख़ुशी ही काम आती है  ग़म की 
 
भरी महफ़ि में हर इक से बचा कर 
तेरी आँखों ने मुझसे बात कर ली


3.ये तो नहीं कि ग़म नहीं
हाँ! मेरी आँख नम नहीं 
 
तुम भी तो तुम नहीं हो आज 
हम भी तो आज हम नहीं 
 
अब  खुशी की है खुशी
ग़म भी अब तो ग़म नहीं 
 
मेरी नशिस्त है ज़मीं 
खुल्द नहीं इरम नहीं 
 
क़ीमत--हुस्न दो जहाँ 
कोई बड़ी रक़म नहीं 
 
लेते हैं मोल दो जहाँ 
दाम नहीं दिरम नहीं
 
सोम--सलात से फ़िराक़ 
मेरे गुनाह कम नहीं 
 
मौत अगरचे मौत है
मौत से ज़ीस्त कम नहीं

 
4.सर में सौदा भी नहीं दिल में तमन्ना भी नहीं
लेकिन इस तर्क़--मुहब्बत का भरोसा भी नहीं
 
यूँ तो हंगामा उठाते नहीं दीवाना--शौक़
मगर  दोस्त, कुछ ऐसों का ठिकाना भी नहीं
 
मुद्दतें गुजरी, तेरी याद भी आई ना हमें
और हम भूल गए हों तुझे ऐसा भी नहीं
 
ये भी सच है कि मुहब्बत में नहीं मैं मजबूर
ये भी सच है कि तेरा हुस्न कुछ ऐसा भी नहीं
 
बदगुमाँ हो के मिल  दोस्त जो मिलना है तुझे
ये झिझकते हुऐ मिलना कोई मिलना भी नहीं
 
शिकवा--शौक करे क्या कोई उस शोख़ से जो
साफ़ कायल भी नहीं, साफ़ मुकरता भी नहीं
 
मेहरबानी को मुहब्बत नहीं कहते ! दोस्त
आह! मुझसे तो मेरी रंजिश--बेजां भी नहीं
 
बात ये है कि सूकून--दिल--वहशी का मकाम
कुंज़--ज़िन्दां भी नहीं, वुसअत--सहरा भी नहीं
 
मुँह से हम अपने बुरा तो नहीं कहते किफ़िराक
है तेरा दोस्त मगर आदमी अच्छा भी नहीं



5.सितारों से उलझता जा रहा हूँ 
शब--फ़ुरक़त बहुत घबरा रहा हूँ
 
तेरे ग़म को भी कुछ बहला रहा हूँ 
जहाँ को भी समझा रहा हूँ
 
यक़ीं ये है हक़ीक़त खुल रही है 
गुमाँ ये है कि धोके खा रहा हूँ
 
अगर मुमकिन हो ले ले अपनी आहट 
ख़बर दो हुस्न को मैं  रहा हूँ
 
हदें हुस्न--इश्क़ की मिलाकर 
क़यामत पर क़यामत ढा रहा हूँ
 
ख़बर है तुझको  ज़ब्त--मुहब्बत 
तेरे हाथों में लुटाता जा रहा हूँ
 
असर भी ले रहा हूँ तेरी चुप का
तुझे कायल भी करता जा रहा हूँ
 
भरम तेरे सितम का खुल चुका है
मैं तुझसे आज क्यों शरमा रहा हूँ
 
तेरे पहलू में क्यों होता है महसूस
कि तुझसे दूर होता जा रहा हूँ
 
जो उलझी थी कभी आदम के हाथों
वो गुत्थी आज तक सुलझा रहा हूँ
 
मुहब्बत अब मुहब्बत हो चली है
तुझे कुछ भूलता-सा जा रहा हूँ
 
 ये सन्नाटा है मेरे पाँव की चाप
फ़िराक़अपनी कुछ आहट पा रहा हूँ

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