अहमद फ़राज़ |
ख्वाब दिल हैं, ना आखें, ना सांसे के जो
रेज़ा-रेज़ा हुए तो बिखर जाएंगे
जिस्म की मौत से यह भी मर जाएंगे !
ख्वाब मरते नही
ख्वाब तो रोशनी हैं, नवां हैं, हवा हैं
जो काले पहाडों से रुकते नही
खवाब तो हर्फ़ हैं
ख्वाब तो नूर हैं !
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रंज़िश ही सही दिल ही दुखाने के लिए आ
आ फ़िर से मुझे छोड के जाने के लिए आ
जैसे तुझे आते हैं ना आने के बहाने
वैसे ही किसी रोज़ ना जाने के लिए आ
इक उम्र से हूं लज़्ज़त-ए-गिरिया से भी महरुम
अए राहत-ए-जान मुझ को रुलाने के लिए आ
अब तक दिल-ए-खुश फ़हम को तुझसे हैं उम्मीदें
यह आखिरी शम्मे बुझाने के लिए आ |
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इससे पहले के बेवफ़ा हो जाएं
क्यूं ना अए दोस्त हम जुदा हो जाएं
अगर मंज़िले ना बन पाएं
मंज़िलो तक का रास्ता हो जाएं |
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आज इस शहर , कल उस शहर का रास्ता लेना
यह सफ़र जितना मुसलसिल है के थक-हार के मैं
बैठ जाता हूं जहां छांव घनी होती है
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जब के सबके वास्ते लाएं हैं कपडे सेल से
लाए हैं मेरे लिए कैदी का कम्बल जेल से
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तु वहीं हार गया था मेरा बुज़दिल दुश्मन
मुझसे तन्हा के मुकाबिल तेरा लश्कर निकला
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यही कहा था मेरी आंख देख सकती है
तो मुझ पे टूट पडा सारा शहर नाबीना
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आशना हांथ ही मेरी ज़ानिब लपके
मेरे सीने में मेरा अपना ही खंजर उतरा |
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इक तो ख्वाब लिए फ़िरते हो गलियों – गलियों
उस पे तकरार भी करते हो खरीदार के साथ |
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मेरा कलाम नही किरदार उस मुहाफ़िज़ का
जो अपने शहर को मशहूर करके नाज़ करे |
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अब तो शायर पे भी कर्ज़ मिट्टी का है
अब कलाम मे लहू है सियाही नही |
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निसार मैं तेरी गलियो पे, अए वतन के जहां
चली है रश्म , के कोई ना सर उठा कर चले |
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शायर अहमद फ़राज़ की जन्मतिथि 14 जनवरी पर उनकी कलाम को तस्लीम करते हुए |