गुरुवार, 12 अगस्त 2010

कवि का स्मरण : आर सी प्रसाद शर्मा

झरना

  जीवन का झरना  

यह जीवन क्या है ? निर्झर है

 मस्ती ही इसका पानी है ,
सुख दुःख के दोनों तीरों से, चल रहा राह मनमानी है
निर्झर में गति है, यौवन है , वह आगे बढ़ते जाता है
धुन सिर्फ है चलने की , अपनी मस्ती में गाता है
निर्झर में गति ही जीवन है ,रुक जाएगी

यह गति जिस दिन
उस दिन मर जाएगा मानव , जग दुर्दिन घड़ियॉ गिन-गिन
चलना है -केवल चलना है , जीवन चलता ही रहता है
मर जाना है रुक जाना ही, निर्झर यह झरकर कहता है
आर सी प्रसाद --- छायावादी युगीन राष्ट्रीय सांस्कृतिक चेतना के कवि हैं आर सी प्रसाद का जन्म 19 अगस्त 1911 को बिहार के दरभंगा जिले में हुआ प्रारंभ में मुंगेर में अध्यापक के रूप में काम किया , बाद में आकाशवाणी में हिंदी कार्यक्रमों के आयोजक के तौर पर जुड़े प्रसाद जी ने द्विवेदी युग में लेखन शुरू किया और छायावादी युग में रचनाएं प्रकाशित होने लगी , हिंदी के अतिरिक्त ' मैथिली' में भी लेखन किया मैथिली की रचना ' सूर्यमुखी' को साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला | कवि के जन्म दिवस के अवसर पर उनकी रचना ' जीवन का झरना ' पोस्ट कर रहा हूँ |

शनिवार, 7 अगस्त 2010

त्रिलोचन स्मरण

त्रिलोचन
वही त्रिलोचन है, वह – जिसके तन पर गन्दे

कपड़े हैं। कपड़े भी कैसे – फटे लटे हैं

यही भी फ़ैशन है, फ़ैशन से कटे कटे हैं।

कौन कह सकेगा इसका यह जीवन चन्दे

पर अवलम्बित है। चलना तो देखो इसका

उठा हुआ सिर, चौड़ी छाती, लम्बी बाहें,

सधे कदम, तेज़ी, वे टेढ़ी मेढ़ी राहें

मानो डर से सिकुड़ रही हैं, किस का किस का

ध्यान इस समय खींच रहा है...

स्मरण: नुसरत फ़तेह अली खान

नुसरत फ़तेह अली खान

आँखें देखीं तो मैं देखता रह गया


आँखें इनको कहूं या कहूं ख्वाब हैं

आंखें नींची हुईं तो हया बन गईं

आँखें`ऊची हुईं तो दुआ बन गई

आफ़रीन-आफ़रीन...

नागार्जुन जन्मशति : सावन अभिनंदन:

अभी कल तक

गालियां देते थे तुम्हें

हताश खेतिहर,

 
अभी कल तक

धूल में नहाते थे
                                                                                                                          
गौरेयों के झुंड,


अभी कल तक

पथराई हुई थी

धनहर खेतों की माटी,


अभी कल तक

दुबके पडे थे मेंढक,

उदास बदतंग था आसमान !


और आज

ऊपर ही ऊपर तन गए हैं

तुम्हारे तम्बू ,


और आज

छ्मका रही है पावस रानी ,

बूंदा-बूंदियों की अपनी पायल,


और आज

चालू हो गई है

झींगुरों की शहनाई अविराम ,


और आज

आ गई वापस जान

दूब की झुलसी शिराओं के अंदर ,


और आज

विदा हुआ चुपचाप ग्रीष्म

समेट कर अपने लव–लश्कर...

गुलशन बावरा तुम बहुत याद आये

हमें और जीने की चाहत न होती
अगर तुम न होते , अगर तुम न होते
हमें जो तुम्हारा सहारा न मिलता
भंवर में ही रहते किनारा न मिलता....

स्मरण: सर्वेश्वर दयाल सक्सेना

जब सब बोलते थे

वह चुप रहता था,

जब सब चलते थे

वह पीछे हो जाता था,

जब सब खाने पर टूटते थे

वह अलग बैठा टूँगता रहता था,

जब सब निढाल हो सो जाते थे

वह शून्य में टकटकी लगाए रहता था

लेकिन जब गोली चली

तब सबसे पहले

वही मारा गया...