रविवार, 9 जनवरी 2011

अहमद फ़राज़ : कलाम मे लहू है !

अहमद फ़राज़ 
ख्वाब मरते नही

ख्वाब दिल हैं, ना आखें, ना सांसे के जो

रेज़ा-रेज़ा हुए तो बिखर जाएंगे

जिस्म की मौत से यह भी मर जाएंगे !


ख्वाब मरते नही

ख्वाब तो रोशनी हैं, नवां हैं, हवा हैं

जो काले पहाडों से रुकते नही

खवाब तो हर्फ़ हैं

ख्वाब तो नूर हैं !

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रंज़िश ही सही दिल ही दुखाने के लिए आ


आ फ़िर से मुझे छोड के जाने के लिए आ


जैसे तुझे आते हैं ना आने के बहाने

वैसे ही किसी रोज़ ना जाने के लिए आ


इक उम्र से हूं लज़्ज़त-ए-गिरिया से भी महरुम

अए राहत-ए-जान मुझ को रुलाने के लिए आ


अब तक दिल-ए-खुश फ़हम को तुझसे हैं उम्मीदें

यह आखिरी शम्मे बुझाने के लिए आ |


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इससे पहले के बेवफ़ा हो जाएं


क्यूं ना अए दोस्त हम जुदा हो जाएं


अगर मंज़िले ना बन पाएं

मंज़िलो तक का रास्ता हो जाएं |

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आज इस शहर , कल उस शहर का रास्ता लेना


यह सफ़र जितना मुसलसिल है के थक-हार के मैं

बैठ जाता हूं जहां छांव घनी होती है

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जब के सबके वास्ते लाएं हैं कपडे सेल से


लाए हैं मेरे लिए कैदी का कम्बल जेल से

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तु वहीं हार गया था मेरा बुज़दिल दुश्मन


मुझसे तन्हा के मुकाबिल तेरा लश्कर निकला

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यही कहा था मेरी आंख देख सकती है


तो मुझ पे टूट पडा सारा शहर नाबीना

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आशना हांथ ही मेरी ज़ानिब लपके


मेरे सीने में मेरा अपना ही खंजर उतरा |

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इक तो ख्वाब लिए फ़िरते हो गलियों – गलियों


उस पे तकरार भी करते हो खरीदार के साथ |

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मेरा कलाम नही किरदार उस मुहाफ़िज़ का


जो अपने शहर को मशहूर करके नाज़ करे |

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अब तो शायर पे भी कर्ज़ मिट्टी का है

अब कलाम मे लहू है सियाही नही |

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निसार मैं तेरी गलियो पे, अए वतन के जहां

चली है रश्म , के कोई ना सर उठा कर चले |
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शायर अहमद फ़राज़ की जन्मतिथि 14 जनवरी पर उनकी कलाम को तस्लीम करते हुए |

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