गालियां देते थे तुम्हें
हताश खेतिहर,
धूल में नहाते थे
गौरेयों के झुंड,
अभी कल तक
पथराई हुई थी
धनहर खेतों की माटी,
अभी कल तक
दुबके पडे थे मेंढक,
उदास बदतंग था आसमान !
और आज
ऊपर ही ऊपर तन गए हैं
तुम्हारे तम्बू ,
और आज
छ्मका रही है पावस रानी ,
बूंदा-बूंदियों की अपनी पायल,
और आज
चालू हो गई है
झींगुरों की शहनाई अविराम ,
और आज
आ गई वापस जान
दूब की झुलसी शिराओं के अंदर ,
और आज
विदा हुआ चुपचाप ग्रीष्म
समेट कर अपने लव–लश्कर...
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